जाति उन्मूलन
परियोजना क्या हो
चंचल चौहान
भारत भूमि पर जाति नामक संस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं, कि
जाति के खात्मे के लिए तमाम संतों, सूफियों, समाज सुधारकों, कवियों, लेखकों के
उपदेशों और सामाजिक आंदोलनों के बावजूद ये जड़ें उखड़ने के बजाय और अधिक मज़बूत
होती गयी हैं। दर असल, आदिम समाज के बाद जब ‘निजी संपत्ति’ का अधिकार हासिल करके मानव समाज वर्गविभाजित हो गया तो नाबराबरी
के दौर में प्रविष्ट हुआ, फिर उस नाबराबरी को बनाये रखने के लिए तरह तरह की
दार्शनिक व धार्मिक व्यवस्थाएं संपत्तिशाली वर्गों ने ईजाद कीं। इन्हें मैं एक नाम
से चिह्नित करता रहा हूं, वह है : ‘क्लासीकल विचारधारा’। इसे हम दास व्यवस्था के समय की ग्रीक सभ्यता में भी देखते
हैं और बाक़ी समाजों में उसी से मिलती जुलती विचारधाराएं पाते हैं जो नाबराबरी को
वैध व स्वीकार्य बनाती रही हैं, ज्यादातर उसे ईश्वररचित बताती हैं। महाकाव्यों में
व दार्शनिक विमर्शों में ‘क्लासीकल विचारधारा’ का वर्चस्व देखा जा सकता है। जातिव्यवस्था भी उसी ‘क्लासीकल विचारधारा’ का भारतीय संस्करण है। गीता में इसे भी
व्यास ने कृष्ण के मुख से ईश्वर रचित कहलवा दिया है, ‘चातुर्वण्यम् मया सृष्टम्’। अब भला धर्मभीरु शोषित समाज ईश्वर के
रचे गये विधान को कैसे चुनौती दे, सो यह व्यवस्था रूढ़ होती गयी और चेतना पर हावी
हो कर एक भौतिक ताक़त बन गयी। अपने अपने जातिगत समूह में या अपने अपने क़बीलों में
महफूज़ रहने में लोगों को सुकून भी हासिल होने लगा, यह अब तक चल रहा है।
पहले इस ‘क्लासीकल विचारधारा’ के बारे में स्पष्टता हासिल की जाये
जिससे यह एक अवधारणा की तरह गोलमोल न दिखायी दे। ग्रीक समाज में जब दास व्यवस्था
थी तो उसमें मालिक लोग सारी ज़मीन के मालिक थे, दास पालतू पशु की तरह उनके लिए
सारे काम करते थे। सत्ताधारी प्रभु वर्ग ने एक दार्शनिक विचारधारा गढ़ी, जिसकी
परिभाषा करते हुए अंग्रेज़ी कवि टी ई ह्यूम ने कहा कि क्लासीकल विचारधारा यह विचार
फैलाती है कि ‘मनुष्य अपनी
सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’, उसके लिए जो भाग्य रचा गया है, उसका वह उल्लंघन नहीं कर
सकता। अगर वह ऐसा करता है तो त्रासद हालत में पहुंचता है। इस विचारधारा के प्रकाश
में अगर ग्रीक दर्शन और साहित्य को देखें तो पायेंगे कि वहां ऐसा नायक जो विधाता
से तयशुदा नियति का उल्लंघन करता है, त्रासद हालत में पहुंचता है। इस तरह दास समाज
को डराया जाता था। ग्रीक मिथकों में चाहे आप ‘इडिपस’ को देखें, ‘इकारस’ को देखें, ‘प्रामिथियस’ को देखें, ये सारे अपनी सीमाओं का उल्लंघन करने पर दंड
पाते हैं। मगर इन सबके साथ होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है। ग्रीक त्रासद
नाटकों में डर पैदा करना आदर्श रचना के लिए ज़रूरी माना जाता था। अरस्तू का काव्यशास्त्र
इसका उदाहरण है। यही क्लासीकल विचारधारा हमारे यहां भी पुराणों व महाकाव्यों में
धागे की तरह पिरोयी हुई है। रावण का वध राम के हाथों होना है, सो होता ही है, कंस
का वध कृष्ण के हाथों होना है तो लाख चतुराई करने पर भी विधि का विधान मिटता नहीं।
यानी भाग्यवाद की वही विचारधारा हमारे यहां भी ब्राह्मणवाद के उन्नायकों ने गढ़ ली
जिससे प्रभुवर्ग अपने दासों को वश में रखने के लिए यह उपदेश दे सके कि उसे अपनी
सीमा को, अपनी नियति को स्वीकार करके जीवन इसी तरह जीना चाहिए, जिस तरह उसके लिए
विधाता ने रच रखा है। यह विचारधारा आज भी हर किसी के होठ पर रहती है, ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा/ को करि तर्क
बढ़ावहि साखा’, या ‘होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है’।
पश्चिम में दास
समाज का ख़ात्मा करके सामंती व्यवस्था क़ायम हुई तो नये दौर की विचारधारा ईसाइयत
की शक्ल में आयी, मगर उसमें भी क्लासीकल विचारधारा को नयी शक्ल में अख्त़ियार कर
लिया गया जो हमें डॉक्टर फ़ॉस्टस पर लिखे नाटकों, मिल्टन के महाकाव्य, पैराडाइज़
लॉस्ट, में या अलैग्ज़ैंडर पोप की लंबी कविता, एन ऐस्से ऑन मैन में दिखायी
देती है। बाइबिल के पहले ही अध्याय में आदम और हौवा अपनी सीमा का अतिक्रमण
करते हैं और इसलिए शापित ताड़ित होते हैं। नये रूप में यह विचारधारा ईसाइयत में ‘चेन ऑफ़ बीइंग’ की शक्ल में प्रचारित की गयी जिसमें
पत्थर, वनस्पति, इंसान, देवदूत, ईश्वर सबकी एक निश्चित जगह है और कोई उसका
अतिक्रमण नहीं कर सकता। कुरान में भी बाइबिल की कहानी ज्यों की त्यों ले ली गयी। पश्चिम
में इन फ़लसफ़ों को एक ओर रूसो ने और रोमानी कवियों ने चुनौती दी तो दूसरी ओर
डार्विन की शोधपूर्ण अमर कृति, द ऑरिजिन ऑफ़ स्पीसीज़ ने इस फ़लसफ़े और
तमाम धर्मों में झूठ पर आधारित सृष्टि की कहानी का बखिया उधेड़ दिया। मगर वर्गसमाज
में चल रहे शोषण और नाबराबरी के खात्मे का वैज्ञानिक दर्शन मार्क्स और उनके सहयोगी
दार्शनिक एंगेल्स ने दुनिया को दिया जिसे समृद्ध करके लेनिन ने रूस में सोवियत
क्रांति की और दुनिया के सर्वहारा को यह संदेश दिया कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के
शोषण का ख़ात्मा सर्वहारावर्ग की रहनुमाई और उसके वैज्ञानिक दर्शन की मदद से
सामाजिक क्रांति द्वारा किया जा सकता है। उसी से प्रेरणा ले कर चीन समेत दुनिया के
कई देशों में क्रांतियां हुईं जहां जहां विश्वपूंजीवाद पनप नहीं पाया था या जो देश
पूंजीवाद की सबसे कमज़ोर कड़ी थे। नेपाल में इसी तरह क्रांति के हालात बन रहे हैं,
बशर्ते वहां सर्वहारावर्ग से प्रतिबद्ध सारे कम्युनिस्ट एक हो जायें। नेपाल में
क्लासीकल विचारधारा पर आधारित राजशाही और ‘हिंदू राष्ट्र’ की सड़ी व्यवस्था का खात्मा तो हो ही गया। वह एक आधुनिक
राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया में है, हालांकि उसे भी चीन की तरह विकास के लिए
पूंजीवाद का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि पूंजीवाद में अभी उत्पादक शक्तियों को
मुक्त करने की क्षमता बनी हुई है। इसलिए सीधे समाजवाद में प्रवेश संभव नहीं, पहले
जनता का जनवाद स्थापित करना होगा।
हमारे समाज में
शोषकों ने सदियों पुरानी क्लासीकल विचारधारा में एक और नयी कड़ी जोड़ दी, वह है
पुनर्जन्म और अवतारवाद की। एक से एक आकर्षक मिथक, क़िस्से, कहानियां गढ़ कर इस विचार
को काफ़ी पुख्ता कर दिया है कि मनुष्य का जन्म उसके अच्छे या बुरे कर्मों के फल के
अनुसार होता है। इस मान्यता को बड़े पंडितों, विद्वानों व संतों के मुख से उपदेश
के रूप में रातदिन हर किसी को सुनाया जाता है। यह सारा उपदेशात्मक तामझाम आज के
समय में और अधिक विकराल रूप ले चुका है, असंख्य चैनल हैं जिन पर सभी धर्मेां के
उपदेशक क्लासीकल विचारधारा के तत्वों को अवाम के दिलोदिमाग़ में भरते रहते हैं, साधु,
साध्वियां, तरह तरह के बाबा और बापू इसी के प्रचार में लगे हैं, कारपोरेट जगत और
विदेशी पूंजी का अच्छा ख़ासा निवेश इस उद्योग में है, अंधविश्वास, अज्ञान और
नियतिवाद के विचार फैलाने के लिए स्वतंत्र टी वी चैनल हैं, यहां तक कि
न्यूज़चैनलों पर भी पैसा दे कर प्रचारकों ने स्लाट खरीद लिये हैं और उन पर इसी तरह
के विचार फैलाये जा रहे हैं। अभी अभी अख़बार में सरकारी चैनल, दूरदर्शन का एक
विज्ञापन देख रहा हूं जिसमें वह एक स्लाट नीलाम करेगा। यह बिना संदेह कहा जा सकता है
कि यह स्लाट भी अंधविश्वास और क्लासीकल विचारधारा के प्रचार के लिए ही इस्तेमाल
होगा। इस परियोजना में आर एस एस-भाजपा के सांसद, कई मंत्री, प्रधानमंत्री तक शामिल
हैं, क्योंकि इससे उनके हि़ंदुत्व की फ़ासीवादी मुहिम को बल मिलता है।
सूचनातंत्र के विकराल
प्रसार से इस समाज के शोषित दलित हिस्सों को ख़ासतौर से इसी विचारधारा से गुलाम
बनाये रखना अब और आसान हो गया है, पूरा एक उद्योग इन उपदेशों का चल रहा है जिन से
मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण और उनके बीच की नाबराबरी को वैधता प्रदान करने और
उसे स्वीकार्य बनाने में मदद मिलती है। ऐसे सम्मेलन हो रहे हैं, कुंभ के मेले हैं,
चार धाम की यात्रा है और अनगिनत सूक्ष्म तरीक़े हैं जिनसे ये विचार मज़बूत होते
रहते हैं कि मनुष्य को जहां भगवान ने जन्म दिया है वह उसी में रह कर अच्छे कर्म
करे तो अगला जन्म बेहतर होगा, शूद्र अगले जन्म में ब्राह्मण हो सकता है, ग़रीब
अगले जन्म में अमीर हो सकता है, बुरे नसीब वाला अगले जन्म में अच्छे नसीब वाला हो
सकता है। इस तरह के विचार यथास्थिति को स्वीकार्य बनाने में काफी अहम भूमिका निभा
रहे हैं। इस सब अज्ञानतंत्र के ख़िलाफ़ न कोई ढंग का पापुलर अख़बार है और न कोई टी
वी चैनल। कुछ व्यक्ति या उनके संगठन अंधविश्वासों और ब्राह्मणवाद की क्लासीकल
विचारधारा के खिलाफ़ मुहिम चला रहे थे वे आर एस एस के हाथों मारे जा चुके हैं। आगे
भी मारे जायेंगे। इस तरह क्लासीकल विचारधारा एक ऐसी पुख्ता भौतिक शक्ति बन गयी है
जो जाति को मिटाने के उद्देश्य से चलाये गये हर सुधार आंदोलन और वैचारिक संघर्ष को
परास्त करती आ रही है।
शोषक वर्ग पहले
अपने अधीन शोषितों को विचारों से ही गुलाम बनाये रखने की कोशिश करते आये हैं, मगर
जब लगता है कि विचारों के हथियारों से गुलामों को कब्ज़े में रखना मुश्किल होगा तो
वे अपने पूरे दमनतंत्र यानी हथियारबंद सेना, पुलिस, न्यायपालिका आदि के माध्यम से
या सीधे सीधे खुद ही गुलामों पर हिंसात्मक कारर्वाई शुरू कर देते हैं। भारत में
दोनों स्तरों पर शोषितों को अपने अधीन रखने की कार्रवाई चलती रही है। इसमें अभी
विचारों के माध्यम से गुलाम बनाये रखने के लिए ज्यादा निवेश किया जा रहा है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि जिन संतों और समाजसुधारकों ने जातपांत, छुआछूत व इस तरह
की इंसानी नाबराबरी के खि़लाफ़ मुहिम चलायी, या जातपांत में यक़ीन न रखने वाले
मज़हब भारत में प्रचलित हुए, उन सबके भक्तजन फिर से उसी ब्राह्मणवादी कर्मकांड में
फंस कर अपने गुरुओं के बताये रास्ते को भूल गये। मध्यकाल के कबीरदास हों या गुरु
नानक या दूसरे निर्गुण विचारधारा के संत और सूफ़ी संत या आधुनिक भारत के ज्योतिबा
फुले, सावित्रीबाई फुले या बाबा साहब आंबेडकर या कांशी राम जैसे समाज सुधारक व
राजनीतिज्ञ हों, इन सबके अनुयायी यथास्थिति के भंवरजाल में फंसकर जातिउन्मूलन के
लक्ष्य को ही भूल गये और अपनी अपनी जातियों के लिए कुछ राहतें हासिल करने के
प्रयासों तक ही उनकी गतिविधि सीमित रह गयी, बड़े लक्ष्य को भूल गये। आजकल
कृषिक्षेत्र की हालत ख़राब होते जाने से कुछ गैरदलित और गैरओबीसी जातियां भी उसी
तरह की राहतें हासिल करने के लिए भयंकर आंदोलन छेड़ने लगी हैं जिन्हें सदियों से
दबे कुचले सामाजिक हिस्सों के लिए हमारे संविधान में आरक्षित किया गया है और जो
उनके उत्थान के लिए अभी भी नाकाफ़ी हैं।
इन हालात को
देख कर क्या यह मान लें कि जातिव्यवस्था अमरबेलि है, अगर समस्या है, रोग है तो कुछ
तो निदान होना ही चाहिए, इसे विधाता का विधान मानकर हाथ पर हाथ रखे बैठना तो
मनुष्यता का तक़ाज़ा नहीं है। यह सही है जातिउन्मूलन परियोजना एक बहुत ही मुश्किल
और चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है, मगर उसे वैज्ञानिक और तर्कसंगत सोच से अंजाम देना ही
होगा, देर सवेर। मेरे विचार से इसके लिए सबसे पहले उन सभी विद्वानों और सत्यशोधकों
को भारतीय समाज के विकास की मौजूदा मंज़िल को समझना होगा। यह काम इसलिए ज़रूरी है
क्योंकि इस शोध से यह साफ़ होगा कि जातिउन्मूलन परियोजना विफल करने वाली ताक़तें
इस दौर में कौन सी हैं। ज़ाहिर है कि वर्गविभाजित समाज में शोषकवर्गों का हित साधन
करने में ऐसी तमाम विचारधाराएं मददगार साबित होती हैं जिनसे समाज के शोषित दमित
दलित हिस्से नाबराबरी के आधार पर आपस में बंटे रहें, उनमें एकजुटता की भावना पैदा
न हो सके। ब्रिटिश शासकों ने भी ऐसा ही किया था और लंबे समय तक भारत के अवाम पर
राज करते रहे। आजाद हिंदुस्तान के नये शासक भी यही चतुराई इस्तेमाल कर रहे हैं।
पूरा समाज नाबराबरी के महीन ताने बाने में ऐसे जकड़ा हुआ है कि पहले वर्णों के रूप
में नाबराबरी, फिर हर वर्ण के तहत आने वाली जाति के भीतर उच्च व निम्न हैं,
ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों के भीतर भी अपने अपने घटक हैं, गोत्र
हैं जिनके माध्यम से नाबराबरी का जाल बिछा दिया गया है। सवर्ण ही नहीं, दलित समाज
भी इसकी पकड़ में आया हुआ है, जाटव, महार, धानुक, पासी, मुसहर, मेहतर और न जाने
कितनी जातियां दलित समाज का हिस्सा हैं, मगर वे सब आपस में ब्राह्मणवादी नाबराबरी
के फ़लसफ़े से बुरी तरह जकड़ी हुई हैं। किसी सुशिक्षित नौकरीशुदा अफ़सर के साथ
जिसके मां बाप मेहतर रहे हों, कोई पढ़ा लिखा जाटव या धानुक या कोई उच्च गोत्रीय
दलित अपनी लड़की को ब्याह करने की इजाज़त नहीं दे सकता और न उसके साथ खानपान का
रिश्ता ही रख सकता है। जाटव भला मेहतर के बराबर कैसे हो सकता है। इस तरह दलित समाज
के बीच भी एकता मुमकिन नहीं, नाबराबरी बरतने का शासकवर्गों का यह खेल पहले से चला
आ रहा है और आज के नये शासकवर्गों ने भी अपने हित में इसे बरक़रार रखा है।
सवाल यह उठता
है कि ये नये शासकवर्ग हैं कौन। आम धारणा शासक के रूप में किन्हीं व्यक्तियों या
पार्टियों को देखती है, पहले राजा महाराजा, नवाब, बादशाह नामचीन शासक समझे जाते
थे, अब उनकी जगह पर कोई न कोई व्यक्ति या पार्टी सामने दिखायी देती है। सब कहेंगे
कि भारत को आज़ादी गांधी जी ने दिलायी, फिर नेहरू, और उनके परिवारजन या उनकी
पार्टी के अन्य नेता शासक बने और आज भाजपा और नरेंद्र मोदी शासक बने हुए हैं। यह
आम धारणा पर्दे के पीछे काम कर रहे उन वर्गों की पैदा की हुई है जिन्होंने शासन
करते रहने के लिए अपनी पार्टियां बनायीं। वर्गविभाजित हर देश में असली शासक तो
शोषकवर्ग हैं, जनता को उनके सेवक या कठपुतली राजनेता ही सामने दिखते हैं, शोषकवर्ग
तो सामने दिखते नहीं। मगर सच्चाई यह है कि असली राजसत्ता इन शोषक वर्गों के हाथ
में है, और इन शोषक वर्गों के हित में चल रही यह समाज व्यवस्था दिखावे के तौर पर
जनतंत्र का उदघोष करती है, जिसमें चुने हुए नेता शासक दिखायी देते हैं, वास्तव में
वे शासक नहीं होते, शासक तो सत्ताधारी वर्ग जैसे पूंजीपति या सामंत या
साम्राज्यवादी इज़ारेदार ही होते हैं। इस लोकतंत्र में शोषकवर्गों के हाथों की
कठपुतली यह व्यवस्था हमें शोषकवर्गों की उन पार्टियों को ही वोट देने को प्रेरित
करती है जिनके सत्ता में आने से शोषण का खेल बरक़रार रहे, उन्हें ही सत्ता में लाने
के लिए धनकुबेर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। जब उनसे जनता ठगी जाती है तो शोषकवर्ग
अपनी ही दूसरी पार्टी में किसी को नया नेता बना कर उसे जनता पर थोप देते हैं और
फिर वही खेल चलता रहता है। शोषितजन वर्गीय चेतना के अभाव में धनकुबेरों का हितसाधन
करने वाली इस या उस पार्टी को चुनते रहते हैं और ठगे जाते हैं और गाते रहते हैं कि
‘ठगवा नगरिया लूटल
हो’। जाति उन्मूलन की
परियोजना की सफलता, दर असल, भारत में शोषण और नाबराबरी पर आधारित समाज व्यवस्था के
खात्मे से ही हासिल हो सकती है, और इस खात्मे के बिना हमारा समाज अपने विकास की
अगली मंजिल में नहीं प्रवेश कर सकता यानी नाबराबरी और मनुष्य द्वारा मनुष्य का
शोषण नहीं ख़त्म हो सकता।
अब सवाल उठता
है कि समाज इस समय विकास की किस मंज़िल में है और अगली मंज़िल क्या हो सकती है
जिसे हासिल करने के लिए हम सब भारतीयों को मिलजुल कर संघर्ष करना चाहिए। आज़ादी
हासिल करना एक मंज़िल थी सो हमने प्राप्त कर ली। उसका अनुभव भी यही बताता है कि जब
ब्रिटिश राज के अधीन सारे शोषितों को यह महसूस होने लगा कि उन्हें स्वाधीन होना
चाहिए तभी भारत आगे बढ़ पायेगा, तो संघर्ष आगे बढ़ा, और हम उस म़जिल को हासिल कर पाये।
अब अगली मंज़िल क्या हो, इस पर सारे अवाम में उस तरह की चेतना नहीं है, न तस्वीर
साफ़ है, न वैज्ञानिक दृष्टि है, तो वही हाल है कि ‘मुकुर मलिन अरु नयनविहीना / रामरूप देखहिं किमि दीना’। अगली मंज़िल का आदर्श दिखायी दे तो
कैसे। इसे देखने का तरीक़ा यही हो सकता है कि आज के युग में जन के दुश्मनों की
पहचान पहले की जाये, जैसे आज़ादी के युग में कर ली थी, सब जान गये थे कि ब्रिटिश
साम्राज्यवाद हम सबका दुश्मन है, उससे मुक्त होना है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का
भारत पर राज इंगलैंड के किसी राजा या रानी का राज नहीं था, वहां के बड़े
पूंजीपतियों का राज था जिनके हाथों ब्रिटेन के समाज की सत्ता थी और उन उपनिवेशों
पर भी कब्ज़ा था जहां वे उपनिवेशों का शोषण करके धन अपने देश ले जा कर अपनी पूंजी
में इज़ाफ़ा करते जा रहे थे। उनके जाने के बाद भारत के सबसे बड़े पूंजीपतियों ने
कांग्रेस के माध्यम से और दूसरी अनेक राजनीतिक व छद्म नामों से बनायी गयी संरचनाओं
से भारत के अवाम पर अपना राज क़ायम किया, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से सीखते हुए
उन्होंने भी बड़े सामंतों व भूस्वामियों के साथ गठबंधन बनाया और दूसरे देशों के
पूंजीपतियों से कर्ज़ लेने के लिए उनके साथ भी समझौता किया। खुली आंखों से देखें
तो यह सिलसिला आज़ादी के बाद से आज तक चल रहा है। तो इससे हमारी समझ साफ़ होनी
चाहिए कि आम भारतीयों के बीच नाबराबरी और शोषण की व्यवस्था को चलाये रखने में ये
ही वर्ग सबसे आगे हैं, यानी इज़ारेदार पूंजीपति और भूस्वामी, व इनसे सहयोग कर रही
है अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जो आइ एम एफ़ और विश्वबैंक के माध्यम से सभी
विकसित समाजों का दोहन करते हुए फलफूल रही है, उसका शिकंजा दिनों दिन मज़बूत होता
जा रहा है, सारे अर्थशास्त्री सलाहकार मनमोहन सिंह, मोंटेकसिंह अहलूवालिया, रघुराम
राजन कांग्रेस के समय में और रघुराम राजन, अरविंद सुब्रहमनियन, अरंविंद पनगडि़या
आदि मोदी सरकार के समय में विश्वबैंक के ही भेजे हुए भारत की अर्थव्यवस्था पर
क़ाबिज हैं, शोषकवर्गों की पार्टियां इस तरह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की सेवा
में लगी हुई हैं, इसलिए नाबराबरी और शोषण के तंत्र को मज़बूत करना विश्वपूंजीवाद
के हितों की रक्षा के लिए हमारे शासकों ने ध्येय बनाया हुआ है।
तो शोषकों का
यह जमघट है जिन से आज़ाद हुए बग़ैर इंसानी नाबराबरी की कोई भी परियोजना कामयाब
नहीं हो सकती, विश्व के शोषकवर्गों के लिए नाबराबरी के सारे फ़लसफ़े, दक़ियानूसी
विचार व विचारधाराएं, मददगार साबित हो रही हैं, इसलिए जातिवाद जैसे ज़हर को और
अधिक फैलाने व कमज़ारे तबक़ों पर अत्याचार व शोषण की मार जारी रखने में इन सारे
शोषकवर्गों का हाथ है, वे नाबराबरी फैलाने वाली सारी विचारधाराओं को हर तरह से ताक़त
यानी वैचारिक बल व धनबल भी मुहैया कराते हैं जिससे शोषितजन खूब बंटे रहें, आपस में
खूनखराबा करें, सभ्यताओं का संघर्ष करें, सांप्रदायिक दंगों में आपस में कटें मरे,
दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, बच्चों व ग़रीबों को मार डालें, खूब हिंसा फैले,
रोज़ बलात्कार की घटनाएं हों। इनकी ख़बरें दे कर उनके टी वी चैनल खूब पैसा कमायें।
इसलिए, जन के असली दुश्मनों की पहचान सबसे पहली शर्त है, किसी भी प्रगतिशील
जनपक्षधर परियोजना को सफलता की ओर ले जाने के लिए, और जाति उन्मूलन परियोजना के
लिए तो यह अनिवार्य शर्त है, जड़ की पहचान न हुई तो पत्तियां व टहनियां काट देने
से कोई विषवृक्ष ख़त्म नहीं हो सकता। अब तक हमारे बहुत से संत, कवि, दार्शनिक,
समाजसुधारक, दलित विचाररक व राजनीतिज्ञ जातिवाद के विषवृक्ष की पत्तियां तोड़ कर
उसे नष्ट करने के उपाय सुझाते रहे, भयानक वृक्ष की जड़ें समाज में और गहरी होती
गयीं। इसलिए इंसान व इंसान के बीच बराबरी की परियोजना से अलग करके इसे देखना
सिर्फ़ पेड़ के पत्तों पर निशाना साधने की तरह ही होगा।
अब सवाल उठता
है कि समाज को अगली मंज़िल में ले जाने की जि़म्मेदारी इतिहास के इस दौर में किस
वर्ग पर आयद होती है। चूंकि समाज पर कब्ज़ा किसी व्यक्ति या किसी पार्टी का नहीं,
वह शोषक वर्गों का है जो अपनी सेविका पार्टियों के माध्यम से शासन करते हैं,
शोषणचक्र को आगे बढ़ाते हैं और नाबराबरी बनाये रखने के सारे उपाय संभव बनाते हैं,
तो उनसे संघर्ष करने का नेतृत्वकारी रोल भी वर्गों का ही होगा, किसी व्यक्ति या
राजनेता का नहीं। मानव इतिहास ने यह ज़िम्मेदारी सर्वहारावर्ग पर डाली है क्योंकि
यह वर्ग ही शोषण व नाबराबरी की सारी पेचीदगियां समझने में व वर्गसंघर्ष के माध्यम
से समाज को आगे की मंज़िल में ले जाने में सक्षम हो सकता है, उसके पास वैज्ञानिक
समाजवाद की विचारधारा भी है, इसलिए वही हिरावल दस्ता हर जगह विश्वपूंजीवाद से
टक्कर ले कर समाज को आगे ले जाने की ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है। वही वर्ग
आधुनिक ज्ञान से लैस हो कर सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी क्लासीकल विचारधारा
से टकरा सकता है। दूसरे वर्ग उसके सहयोगी हो सकते हैं, जो भी शोषण व नाबराबरी की
आग में जल रहे हैं। इससे यह समझ में आता है कि सर्वहारावर्ग की रहनुमाई में बहुत
बड़ा मोर्चा बनना चाहिए जिसमें वे सारे वर्ग शामिल हों, जो इज़ारेदार पूंजीपति व
बड़े भूस्वामियों के गठबंधन वाले शोषणतंत्र व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के
चंगुल से हमारे समाज को निकालकर एक सच्चे जनवादी जनतंत्र की नयी मंजिल में ले जा
सके। स्वाधीनता आंदोलन जैसे एक साझा मोर्चा था, साम्राज्यवादविरोधी सारे वर्ग उसके
हिस्से थे, नेतृत्व देशी पूंजीपति ज़रूर कर रहे थे, मगर वह साझा मोर्चा था। अब उस
दौर के पूंजीपति आज शोषकवर्गों के सरगना हैं, तो नया मोर्चा तो उनके अधीन काम कर
रहे मज़दूरवर्ग यानी सर्वहारावर्ग को ही बनाना होगा, क्योंकि यह इतिहाससिद्ध है कि
मज़दूरवर्ग जो वैज्ञानिक द़ृष्टि से लैस हो, तो वही सबसे क्रांतिकारी वर्ग इस दौर में
है। इस नये मोर्चे को जनता का व्यापक जनवादी मोर्चा कहा जा सकता है, यह मोर्चा यदि
राजसत्ता हासिल कर सके तो उसे सबसे पहले वैज्ञानिक व तर्कसंगत नज़रिये से सारे
शोषित जनों को आर्थिक तौर पर बदहाली से निकाल कर एक नये उच्च स्तर पर ले जाना
होगा, जिससे इंसान इंसान के श्रम का शोषण पैसे के बल पर और अपनी दौलत में इज़ाफ़ा
करने या लाभलोभ के लिए न कर सके। आर्थिक पराधीनता के रहते जातिउन्मूलन परियोजना
कभी सफल नहीं हो सकती। मौजूदा संविधान की प्रतिज्ञाएं भी तब तक अमल में नहीं आ
सकतीं, भले ही हमारा संविधान इस देश को एक ‘जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, व समाजवादी’ समाज अपने पन्नों पर दर्शाता हो। अगर
उत्पादन के तमाम साधनों पर यानी भूमि, खदान, उद्योगधंधों, कल कारखानों व सेवा
सेक्टर पर कब्ज़ा पूरे समाज का नहीं होता, इस पूरे समाज की दौलत पर निजी
पूंजीपतियों व भूमाफियों का कब्जा बना रहता है, तो यह समाजवादी देश कैसे कहा
जायेगा। जब तक देश की दौलत पर सबका समान अधिकार नहीं होता तो नाबराबरी बनी ही
रहेगी, और नाबराबरी को बनाये रखने के लिए शोषकवर्ग यानी इज़ारेदार पूंजीपति और
बड़े भूस्वामी समाज में हर तरह की नाबराबरी वाले सारे पुराने ढांचे मज़बूत करते
रहेंगे। भारतीय संविधान ने दलितों व पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे कर
उनकी आर्थिक हालत सुधारने का प्रावधान किया, मगर निजी क्षेत्र, व ठेका पर रखे जाने
वाले कर्मचारियों, बहुदेशीय निगमों आदि में जहां ज्यादा रोजगार के अवसर इस बीच
पैदा हुए, वहां कोई आरक्षण नहीं है। खेती की ज़मीन में उनकी कोई हिस्सेदारी
सुनिश्चित नहीं की गयी।
1991 से
नवउदारीकरण व भूमंडलीकरण की मुहिम चलाने वाले विश्वबैंक व आइ एम एफ़ के निर्देशों
का पालन करते हुए अधिक से अधिक निजीकरण करके आरक्षण से मिलने वाले अवसरो को भी
खत्म किया जा रहा है। इससे नाबराबरी घटने के बजाय बढ़ रही है। यदि सचमुच हम
समाजवादी देश होते तो सबसे पहले खेती की ज़मीन जोतने वालों को दी जाती, तब दलित जो
बड़ी तादाद में भूमिहीन और साधनहीन हैं, ठाकुर, ब्राह्मण, और दूसरे भूस्वामी
सवर्णों के बराबर की ज़मीन के हक़दार होते, वे अपनी ज़मीन पर खेती करते, अच्छी
फसलें उगाते। तब उन्हें या उनकी औरतों, बच्चों को बड़े भूस्वामी सवर्णों के खेतों
व घरों में काम करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, मैला ढोने व मरे हुए जानवर उठाने की
प्रथा खत्म हो जाती। बराबर की शिक्षा हासिल करके वे भी उन्हीं की तरह अच्छे पदों
पर काम करते। मगर यह सब नहीं हो पाया और न दलित नेताओं ने इस मूलगामी उद्देश्य के
लिए कभी कोई मांग की। सरकारें बनाने पर भी दलित नेताओं ने कोई भूमिवितरण का कार्य
नहीं किया, उन्होंने भी वोट भूमिहीनों से ले लिये, मगर चुने जाने के बाद बड़े
पूंजीपतियों की गोद में बैठ उन्हीं का हितसाधन ज्यादा किया। बाबा साहब आंबेडकर ने फेबियन
समाजवाद के असर में कोआपरेटिव खेती का सुझाव अपने लेखन में ज़रूर रखा, जो विकसित
समाजवाद की मंजिल में ही कारगर हो सकता था, उन्होंने यह नहीं सोचा कि हमारे पिछड़े
समाज में तो अभी संपत्तिहीन, भूमिहीन को संपत्ति व ज़मीन की मिल्कियत देने से
शुरुआत करनी होगी, न कि सामूहिक खेती से। उन्हें खेती की ज़मीन जोतने वाले को देने
और भूस्वामियों से भूमि ले कर भूमिहीनों को देने का आंदोलन पहले छेड़ना चाहिए था
जो जातिउन्मूलन के लिए वातावरण बना सकता था। इस पर ध्यान नहीं दिया। बाद में, अपना
फेबियन समाजवाद छोड़ कर बाबा साहब ने बौद्ध बन जाने में जातिउन्मूलन देखा। उनके
अनुयायियों ने उनके लक्ष्य को भुला कर कोई मूलगामी बदलाव करने की दिशा में चिंतन
तक नहीं किया, बाबा साहब के जन्मदिन पर उनके बुत पर फूलमाला चढ़ा कर आत्मतोष कर
लिया। यह सोचनीय स्थिति है।
इस दौर की दलित
या ब्राह्मणवादविरोधी जो भी राजनीति है, वह देश के शोषकशासक वर्गों और
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की ही चाकर है, वह दलितों, वंचितों, भूमिहीनों को
खेती की ज़मीन दे कर या सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों में ही आरक्षण की व्यवस्था कराके
उनके जीवनस्तर को सुधारने के कोई क़दम नहीं उठाती। वह भी अपने अपने राज्य में
पूंजीपतियों का अधिक से अधिक निवेश कराकर शोषण और नाबराबरी की व्यवस्था की ही सेवा
में लगी रहती है। इस तरह की दलित राजनीति से जातिउन्मूलन की परियोजना में कामयाबी
हासिल नहीं हो सकती। इसके लिए वर्गीय नज़रिये से क्रांति की नयी मंजिल में पूरे
समाज को ले जाने की ही ज़रूरत पड़ेगी, इस व्यवस्था में ही काटछांट, लीपापोती, कुछ
नौकरियां, कुछ राहतें हासिल करने भर से नाबराबरी की विषवेलि नहीं सूखेगी, इसे
सुखाना है तो इसकी जड़ पर ही चोट करनी होगी, भारत की सारी दौलत पर मेहनतशकश अवाम
का कब्ज़ा सुनिश्चित करने की क्रांतिकारी मंजिल में पूरे शोषित समाज को ले जाना होना
होगा, और यह काम सिद्धांत में जितना आसान लगता है, अमल में उसकी डगर ऐसे विशाल
ख़तरों से भरी है जिन्हें समाजवाद के दुश्मन अपनी पूरी धनशक्ति, झूठ की
प्रचारशक्ति और पूरे अस्त्रशस्त्र व व्यवस्थागत दमनतंत्र की शक्ति के साथ अवाम पर
बरपा करेंगे। मगर यह भरोसा बनाये रखना ही होगा कि जिस तरह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से
भारत आज़ाद हुआ उसी तरह इज़ारेदार पूंजीवाद व भूस्वामित्व और अंतर्राष्ट्रीय
वित्तीय पूंजी के गठबंधन की मौजूदा गुलामी से भी हमारा देश मुक्त होगा ही,
नाबराबरी के सारे पाप धोने ही होंगे, तभी जातिवाद उन्मूलन की परियोजना की सफलता के
लिए उर्वर ज़मीन तैयार होगी, तब तक वैचारिक संघर्ष इस बुरार्इ के ख़िलाफ़ चलाते
रहें, हमारे बुद्धिजीवी, कवि, कलाकार, चिंतक, दार्शनिक। आंबेडकर व ज्योतिबा फुले
जैसे महान नेताओं की मशाल को और अधिक ज्ञान अर्जित करके आगे बढ़ाते रहें। उनके
मानवतावादी जनवादी विचारों से भविष्य में जातिउन्मूलन परियोजना को मदद मिलेगी ही।