My View today

24-9-2019

 

एक विकृत नज़र में वामपंथी सांस्कृतिक विरासत

चंचल चौहान

 

भोपाल से अपन के एक दोस्त ने एक अख़बार की छह कतरनें भेजी हैं जिनमें गिरीश उपाध्याय नाम के एक लेखक संपादक महोदय के ‘गिरेबान’ कालम के अंतर्गत क़िस्तवार लिखे विचारोत्तेजक लेख छपे हैं जो न्यूज़क्लिक पोर्टल पर हिंदी में छपी उस रिपोर्ट को आधार बना कर लिखे गये हैं जिसमें दिल्ली में हाल में ही जलेस, दलेस और जसम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित एक संक्षिप्त सी गोष्ठी का सारसंक्षेप अंकित था, विषय था : ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और हमारा समय’। लेखक महोदय स्वयं भले ही आर एस एस के जन्मना ‘सेवक’ न हों, और ‘मार्क्सवाद के अध्येता’ वे रहे नहीं, लेकिन इन कतरनों को पढ़ने के बाद उनका पर्सपेक्टिव आर एस एस के प्रचारतंत्र से उधार लिया गया लगता है। उसमें कुछ भी मौलिक नहीं। उनका ज़ोर इस बात पर बार बार है कि वाम की विचारधारा आयातित है, दक्षिणपंथ यानी आर एस एस की विचारधारा ‘भारत की ही मिट्टी’ का लोंदा है। उन्हीं के कथन को देखें, ‘असल में दक्षिण (यानी आर एस एस) ने उनकी इसी विरासत को ले कर पूरा ‘खेल’ रचा। सर्वहारा के एक आयातित विचार के समानांतर भारत की ही मिट्टी से उपजी सामाजिक व्यवस्था के विचार को ही राजनीति के केंद्र में लाया गया।’। लेखक महोदय को शायद मालूम नहीं कि आर एस एस के बी एस मुंजे 1931 में 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में रहे थे और कुख्यात फ़ासिस्ट तानाशाह मुसोलिनी से जा कर मिले थे, वहां के आर एस एस जैसे फ़ासिस्ट संघ की शाखाओं, उनके ट्रेनिंग संस्थान वग़ैरह देखे थे। मुसोलिनी से शिक्षादीक्षा हासिल कर वे भारत लौटे, उसी तरह से उन्होंने काम करना शुरू कर दिया, उसी तरह संघ के सदस्यों को आयातित खाकी ड्रेस पहनायी और कवायद करायी। वही तौर तरीक़ा आज तक चल रहा है, इसका भारत की संस्कृति और मिट्टी से दूर तक कोई नाता नहीं। क्या नेकर, कमीज़ और काली टोपी भारतीय शास्त्रों से ली है, क्या मनुस्मृति के रचयिता ने इसी ड्रेस और कवायद का भारतीयों को निर्देश दिया था । बी एस मुंजे की इटली यात्रा का यह सारा ब्योरा मुंजे जी की अपनी डायरी में लिखा हुआ है जिसे नेहरू म्यूज़़ियम लाइब्रेरी में कोई भी देख सकता है। खोजी पत्रकारिता करने वाले तो पढ़ें ही।

            यह सही है कि वामपंथ सर्वहारा की विचारधारा यानी मार्क्सवाद के सिद्धांत और व्यवहार का पक्षधर है जिसे वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा कहा जाता है। मानव समाज जिसे हम ही नहीं, संघी भी कहते हैं, वसुधैव कुटुंबकम् है और इस कुटुंब के किसी भी कोने में मानवहित करने वाला ज्ञान या दर्शन या विज्ञान किसी एक देश या जाति का नहीं रह जाता, कोई उसे बांध कर रखना भी चाहे तो वह संभव नहीं। बौद्ध दर्शन भारत में जन्मा, फला फूला, लेकिन भारत के ब्राह्मणवादी मनुवादी शासनतंत्र यानी वर्णव्यवस्था के लिए ख़तरा लगने लगा तो उसे मार भगाया, मगर उसे चीन और उसके आसपास के भूभागों में स्वीकृति हासिल हुई, उसे वहां किसी मूर्ख ने ‘आयातित’ नहीं कहा। उसी समतावादी मनोभूमि से वहां मार्क्सवाद का वैज्ञानिक ज्ञान फैला जो चीन को प्रगति और विकास की नयी नयी मंज़िलों की ओर ले जा रहा है। उसी ज्ञानदर्शन की ताक़त से सोवियतसंघ ने हिटलर को परास्त कर मानवता को उसके खूनी शिकंजे से आज़ाद कराया। उसी विचारधारा के बल पर वियतनाम जैसा छोटा सा देश, फ्रांस और अमेरिका जैसे साम्राज्यवादियों के वहशी आधिपत्य से अपने देश को मुक्त करा सका। इसी ज्ञानदर्शन की रहनुमाई में क्यूबा जैसा छोटा सा देश अमेरिका जैसे दानव की धौंस में नहीं आता जबकि हमारे शासक स्वाधीन भारत में भी उसके पिट्ठू रहे हैं और आज भी हैं। हमारा पड़ोसी देश नेपाल जो पिछले कुछ एक साल पहले तक दुनिया का ‘इकलौता हिंदू राष्ट्र’ था, पुराना सड़ा हुआ चोला उतार कर आज एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है और इसी तथाकथित ‘आयातित सर्वहारा की विचारधारा’ की पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी का वहां शासन है।

            आज के युग में अपने समाज और देश को विकास की ओर ले जाने के लिए सभी तरह का ज्ञान, विज्ञान, टैक्नोलाजी हर देश और समाज हासिल कर रहा है वह चाहे जहां की हो। हमारे यहां सारा कंप्यूटर का हार्डवेयर यानी छोटा सा ‘माउस’ तक चीन से आयातित है, हमारे यहां का साफ्टवेयर दुनियाभर में जा रहा है। हर हर हाथ में जो मोबाइल फ़ोन है, वे चीन का बना हुआ है, मोदी जी का ‘मेक इन इंडिया’ तो सिर्फ़ दूसरे जुमलों की तरह एक जुमला है। ऐसे में सदियों से चली आ रही ज्ञान विज्ञान की इस आवाजाही पर जब संघी कुतर्क करते हैं तो वे अपने खुद के नेकर और कमीज़ को भूले रहते  हैं। कोई समाज कुएं का मेंढक बन कर प्रगति नहीं कर सकता।

            जहां बी एस मुंजे मुसोलिनी से गंडा ताबीज बंधवा कर आर एस एस की ड्रेस और फ़ासीवादी विचारधारा व तौर तरीक़े 1931 में इटली से आयात करके भारत लाये, वहीं उससे पहले 1930 में गुरु गोलवलकर ने भी अपनी विचारधारा का स्रोत सबके सामने रख दिया। उन्होंने हिटलर की नाज़ी पार्टी को अपना गुरु बताया और उसी विचारधारा को भारत में आयात करने की सलाह अपनी पुस्तक, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में दी जो इंटरनेट पर पढ़ी जा सकती है। देखें, इस किताब के पृष्ठ 87-88 जो इस साइट पर उपलरब्ध है :   (http://sanjeev.sabhlokcity.com/Misc/We-or-Our-Nationhood-Defined-Shri-M-S-Golwalkar.pdf)  

                अगर गिरीश उपाध्याय जी ने आर एस एस के दस्तावेज़ों को वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता के नियमों के अनुशासन में पढ़ा होता तो वे मानवविरोधी आयातित नाज़ी विचारधारा को ‘भारत की मिट्टी’ का लोंदा बताने की ‘भूल’ग़लती’  कभी नहीं करते क्योंकि आज दुनिया का हर प्रबुद्ध मानवतावादी इंसान फ़ासिस्ट विचारधारा को मानवसभ्यता पर कलंक मानता है जिसने प्रजाति के नाम पर लाखों इंसानों को मार डाला। हमारे यहां भी उसी विचारधारा के असर में ज्ञान का प्रचारप्रसार करने वालों की हत्याएं हो रही हैं। इस देश के अल्पसंख्यक नागिरकों पर इसी विचारधारा के असर में जुल्म ढाये जा रहे हैं। ग़रीबों, शोषितों, दलितों व महिलाओं पर अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले और सर्वहारा की विचारधारा मानने वाले हमेशा हर देश में फ़ासिस्टों के निशाने पर रहे हैं और भारत में भी हैं। आर एस एस के दस्तावेज़ों में भी इसी तरह के विचार मौजूद हैं जिनसे हमारे संविधान में निहित मूल्यों का निषेध होता है। इस नज़र से यह एक राष्ट्रविरोधी, भारतीय संविधानविरोधी और जनविरोधी संगठन है। इसकी ब्रिटिश वफ़ादारी की रिपोर्टें अब तो जगज़ाहिर हैं। इसलिए इसका चरित्र राष्ट्रीय न हो कर हमेशा से राष्ट्रविरोधी रहा है। इसकी विचारधारा भारतीय तो क़तई नहीं है। ‘भारतीय संस्कृति क्या है’ इस पर तीन किस्तों में मेरा एक संवाद उसी न्यूज़क्लिक पर मौजूद है जिसका हवाला गिरीश उपाध्याय ने दिया है। मैंने सप्रमाण बताया है कि आर एस एस का भारतीय संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है।

            मैं यह लिखता भी रहा हूं और बोलता भी रहा हूं कि समाज में होने वाली हर हलचल या आंदोलन चाहे राजनीति में हों या संस्कृति और साहित्य में, उसके समयसापेक्ष और समाजसापेक्ष कारण होते हैं। क्या कारण है कि बाबर के या अकबर के शासनकाल में न आर एस एस था, न मुस्लिम लीग, न कांग्रेस न कम्युनिस्ट पार्टी। लेखक संगठन ज़रूर थे, ज्ञानमार्गियों के भी और सगुण भक्तों के भी। आधुनिक राजनीति, ज्ञानविज्ञान, भाषा,  संस्कृति और साहित्य और आचार विचार भी दुनिया के हर देश में तभी अस्तित्व में आये जब मशीनों के आविष्कार के साथ आधुनिक पूंजीवाद का उदय हुआ। पूंजीवादी शोषण को एकदम अपनी आंखों से देखने वाला फ़ैक्टरी मज़दूर भी आधुनिक पूंजीवाद के साथ ही वजूद में आया। इन दोनों आधुनिक वर्गों ने अपनी अपनी राजनीतिक पार्टियां भी बनायीं, दूसरे संगठन भी बनाये। इसीलिए दुनिया के सारे पूंजीवादी देशों में इन दोनों आधुनिक वर्गों के राजनीतिक संगठन और  वैचारिक संगठन भी मौजूद हैं। इन पार्टियों के नाम अलग अलग हो सकते हैं लेकिन वे हर देश में मौजूद वर्गों का हितसाधन करने वाली ही होती हैं। वैज्ञानिक समाजशास्त्रियों का यह अकाट्य तर्क है कि कारपोरेट पूंजी अपनी रक्षा के लिए संकट के दिनों में फासीवाद को उभारती है। हिटलर और मुसोलिनी के उभार के पीछे संकटकाल में कारपोरेट पूंजी का बल था। आज दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी अपने संकटकाल में फासिस्ट निज़ामों को उभार रही है, जो हर तरह का झूठ बोल कर, झूठे वादे करके, प्रलोभन दे कर, ख़रीद फ़रोख्त करके, ‘अच्छे दिन’ के झूठे सपने दिखा कर आम जनता को अपने पक्ष में करके सत्ता हासिल कर रहे हैं, भारत कोई अपवाद नहीं है। यहां भी ‘सांच कहौ तो मारन धावहिं झूठहिं सब पतियाना’

            जर्मनी के नाजियों की मानवताविरोधी विचारधारा के ख़िलाफ़ सारी दुनिया के लेखकों ने चौथे दशक में एकजुट हो कर प्रगतिशील संगठन बनाने की अपील की थी, भारत के मुल्क राज आनंद और सज्जाद ज़हीर उसमें शामिल थे। भारत के प्रेमचंद सरीखे लेखक पहले से ही ऐसे संगठन की ज़रूरत महसूस कर रहे थे, देश में भी तब तक आर एस एस जैसा फ़ासीवादी विचारधारा का संगठन बन चुका था जो ब्रिटिश कारपारेट पूंजी का वफ़ादार सेवक था, जिसके लिखित प्रमाण अब भी मौजूद हैं, उसने उस दौर में कभी भूले से भी तिरंगा नहीं छुआ, न आज़ादी के नारे लगाये, बस नाम में जोड़ लिया ‘राष्टीय’, वफ़ादारी देशी सामंतों और कारपोरेट पूंजी की कर रहा था।  उस समय देश के सर्वहारावर्ग की राजनीतिक पार्टी भी बन चुकी थी, भगतसिंह भी उसी विचारधारा की ओर मुड़ चुके थे, कम्युनिस्टों को कई षडयंत्रों के केसों में फंसा कर जेलों में डाला जा चुका था। इसी उथलपुथल ने यहां भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म दिया। उससे पहले यहां देशी पूंजीपतियों से प्रेरित हिंदी साहित्य सम्मेलन (1910) बन चुका था। नया संगठन उससे अलग सारी भाषाओं की एकता और देश की आज़ादी व प्रगति के संकल्प के साथ वजूद में आया जिसे देश के सर्वहारावर्ग की राजनीति ने प्रेरित किया लेकिन उसमें सभी देशहितैषी तबक़ों का समावेश था। भारत के सांस्कृतिक विकास में उसके योगदान को तो खुद गिरीश उपाध्याय ने स्वीकारा है। आजादी के बाद हालात बदल गये, तो 1953 में वह निष्प्रभ हो गया, आधुनिकतावाद के लिए जमीन तैयार थी। सत्तर के दशक में जब कारपोरेट पूंजी ने संकटकाल में तानाशाही की ताक़तों को उभारना शुरू किया, एमर्जैन्सी लगवायी, अभिव्यक्ति की आज़ादी व नागरिक अधिकार छीन लिये गये, तो एक बार फिर लेखक संगठित होने लगे।

            आज के समय में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को अपना संकट फिर दिख रहा है, भारत पर भी उसी पूंजी का वर्चस्व 1991 से क़ायम है, सत्ता किसी भी दल की रहे, उस विदेशी पूंजी के कर्ज़ से भारत बुरी तरह लदा है। वित्त मंत्रालय की वेबसाइट पर सारे बरसों के आंकड़े देखे जा सकते हैं। रातदिन ‘राष्ट्रवाद’ का जाप करने वाली भाजपा के शासनकाल में यह विदेशी कर्ज़ा और ज्यादा हो गया है जिसके ब्याज देने में ही देश की जनता की कमर टूट जायेगी । इसलिए कारपोरेट पूंजी फ़ासीवाद से ही जनता पर शासन करने के महीन तरीके अपनाकर उन्हीं संगठनों और पार्टियों को धन बल से मज़बूत बनाने में लगी हैं जो तानाशाही थोपने में कुशल हों। कई देशों में यही हो रहा है। ऐसे में प्रगतिशील आंदोलन की विरासत को याद करना लेखकों की अपनी ज़रूरत है, ख़ासतौर से ज्ञानमार्गी शाखा के लेखक जो कबीर की तरह जानते हैं कि ‘पंडित वाद बदै सो झूठा’। यह आज का यथार्थ है कि ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति’। यह विडंबना ही है कि इस आसुरी शक्ति की बढ़त पर कुछ एक प्रब़ुद्ध लेखक और इक्का दुक्का लेखिकाएं भी खुशी से फूली नहीं समातीं। ऐसे लोग इस सत्य से आंखें मूंदे हैं कि इसी दल के अनेक नेता रावण की तरह बाबाओं का भेष धारण कर देश की बेटियों के साथ बलात्कार कर रहे हैं, मंत्री उन शूरवीरों को माला पहना रहे हैं, साघ्वियां उनके चरणस्पर्श कर रही हैं। ऐसे अपराधियों के बल पर और कारपोरेट घरानों से मिले अपार धनबल से ही इस शक्ति का विस्तार हुआ है, यह सच्चाई खोजी पत्रकार भूले हुए हैं। उन्हें यह सब ‘रामराज्य’ नज़र आता है।

            गिरीश उपाध्याय बहुत से बुद्धिजीवियों की तरह चुनावी राजनीति के नतीजों से ही वाम के सिकुड़ते आधार और दक्षिण के प्रसार प्रचार से अभिभूत हो कर खुशी का इज़हार कर रहे हैं। मगर उनकी बातों में यह सचाई तो झलक ही रही है कि दक्षिणपंथ ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, अज्ञान, धर्म, वर्ण आदि सभी दक़ियानूसी विचारों को उभार कर अपना प्रभाव बढ़ाया है जिनके ख़िलाफ़ सदियों से अनेक संतों, दार्शनिकों ने और वामपंथ ने अपनी आवाज़ बुलंद की। इससे यह सवाल तो उठता ही है कि क्या किसी भी संवेदनशील देशहितैषी बुद्धिजीवी या पत्रकार को इस बात से खुश होना चाहिए कि हमारे देश के लोग अंधविश्वासों, कुरीतियों और पिछड़ेपन के हमेशा शिकार बने रहें जिससे वोट की राजनीति में इन कुरीतियों और अंधविश्वासों और असत्य को फैलाने वाले ही फलें फूलें, राज करें और फिर कारपोरेट पूंजी पर संकट आये तो तानाशाही लाद दें। अमीर और अमीर होता रहे, ग़रीब हमेशा ग़रीब रहे और आत्महत्या कर ले। वामपंथ भले ही वोट की राजनीति में धनबल, भुजबल के अभाव में बहुत कम दिखायी दे, लेखक और बुद्धिजीवी समुदाय उसे अपना भरपूर प्यार दे रहा है। गिरीश उपाध्याय ने भी यह सच्चाई सामने रखी है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों में और समाज की कुरीतियों व अंधविश्वासों से लड़ने वाले अनेक संगठनों के सदस्यों के बीच प्रगतिशील विचारों का लगातार विकास हुआ है। संख्या की दृष्टि से वे बहुत बड़ी भीड़ नहीं है, किसी भी युग में नहीं थे, भक्ति आंदोलन में ज्ञानमार्गियों का भी यही हाल था क्योंकि वे ब्राह्मणवादी भक्तिमार्गियों की तरह यह झूठ नहीं लिख रहे थे कि राम की भक्ति से सारी मनोकामनाएं पूरी हो जायेंगी, ‘सुख संपति घर आवे दुख विनसे तन क।‘ कबीर इसी वजह से कह रहे थे कि ‘पंडित वाद वदै सो झूठा’। ऐसा साहस दिखाने वाले हर देश में और हर युग में दूध में मलाई की तरह होते हैं, कम होते हैं।

            सत्य के पक्षधर नाजीवाद के साथ नहीं होते। यही वजह है कि नाज़ीवादी आर एस एस के पास न कोई उच्च स्तरीय अर्थशास्त्री है, जो विश्वबैंक ने भेजे भी थे, जैसे अरविंद पानगडिया, अरविंद सुब्रामनियन या उससे पहले रघुराम राजन या उर्जित पटेल, वे सब यहां से वापस भाग लिए, न कोई बड़ा लेखक, न कलाकार और न कोई शिक्षाविद। जिस आर एस एस के पास दीनानाथ बतरा जैसा शिक्षाविद जिसकी किताबें झूठे और ग़लत उद्धरणों से सुशोभित हैं आदर्श के रूप में पूज्य हो, तो हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

            भारतीय संस्कृति में ‘वाद से सत्य का जन्म होता है’ पर ज़ोर है। चुनावी राजनीति में आज किस का वर्चस्व है, कल किसका होगा, यह सवाल देश के सांस्कृतिक विकास के लिए कोई मायने नहीं रखता। अंग्रेज उपनिवेशवाद 1757 से लेकर 1857 तक और उसके बाद सीधे ब्रिटिश निजाम 15 अगस्त 1947 तक भारत की सत्ता पर क़ाबिज़ रहा। हिटलर और मुसोलिनी भी फ़ासीवादी विचारधारा से सत्ता में रहे, लेकिन उनका भी अंत तो हुआ ही। साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में उनका प्रतिरोध करने वाले संख्याबल में कुछ भी नहीं थे, अवाम के भी बहुत से हिस्से उस निज़ाम के साथ (लेखकों के भी) रहे। इतिहास याद उन्हीं को करता है जिनमें सरफरोशी की तमन्ना थी, जो अन्याय के प्रतिरोध में खड़े थे, लिख रहे थे। राग दरबारी गाने वाले तब भी थे, अब भी हैं और रहेंगे। मानव प्रगति की गाड़ी खाई खंदक आने पर रुकती भी है, कई बार पीछे भी चली जाती है, लेकिन अंतत: उसकी प्रकृति अग्रगामी ही रहेगी, मानव इतिहास इसका गवाह है। प्रगतिशील आंदोलन की विरासत भी इसी बोध को रेखांकित करती है।